Magh Purnima 2024: माघ पूर्णिमा पर जरूर पढ़ें ये पौराणिक व्रत कथा, पूरी होगी हर मनोकामना

India News (इंडिया न्यूज़), Magh Purnima 2024:सनातन धर्म के अंदर माघ पूर्णिमा एक विशेष महत्व रखती है। हिंदू मान्यताओं के आधार पर माघ पूर्णिमा पर भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी की पूजा की जाती है। इस दिन गंगा स्नान का भी विशेष महत्व माना गया है। आशीर्वाद और आध्यात्मिक शुद्धि पाने के लिए भक्त इस दिन व्रत रखते हैं। यह महत्वपूर्ण दिन कई परंपराओं और पौराणिक कथाओं से जुड़ा है, जिनमें नदियों में स्नान का अत्यधिक महत्व है। मान्यता है कि माघ पूर्णिमा पर पौराणिक व्रत कथा पढ़ने से भक्तों की हर मनोकामना पूरी होती है।

माघ पूर्णिमा की पौराणिक व्रत कथा

कथा ऐसे शुरू होती है, बहुत पहले की बात है। एक नगर में धनेश्वर नाम का एक ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम था रूपवती। रूपवती पतिव्रता और सर्वगुण संपन्न थी। लेकिन धनेश्वर और रूपवती को कोई संतान नहीं थी। जिस वजह से दोनों बहुत चिंतित रहते थे।

एक बार उस नगर में एक महात्मा आए। माहात्मा ने उस नगर के सभी घरों से दान लिया। लेकिन रूपवती जब भी उन्हें दान देने जाती तो वो उसे लेने से मना कर देते थे। एक दिन धनेश्वर महात्मा के पास पहुंचा और पूछा की,  हे महात्मन्, आप नगर के सभी लोगों से दान लेते हैं। लेकिन मेरे घर से नहीं लेते हैं। हमसे अगर कोई भूल हुई हो तो हम आपसे क्षमा याचना करते हैं। इस पर महात्मा ने कहा,  नहीं पुत्र, तुम तो आदर-सत्कार करने वाले ब्राह्मण हो, तुमसे कभी कोई भूल हो ही नहीं सकती। महात्मा की बात सुनकर धनेश्वर दोनों हाथ जोड़कर बोला- हे मुनिवर! फिर आखिर क्या वजह है कि आप हमासे दान नहीं लेते? कृपया हमें बताएं। इसपर महात्मा बोलते हैं, तुम्हारे कोई संतान नहीं है। जो दंपति निसंतान हो उसके हाथ से भिक्षा कैसा ग्रहण कर सकता हूं। तुम्हारे द्वारा दिए दान सो मेरा पतन हो जाएगा। बस यही कारण है कि मैं तुम्हारे घर से दान स्वीकार नहीं करता। महात्मा के ऐसे बोल सुनकर धनेश्वर उनके चरणों में गिर पड़ा। वे विनती करते हुए बोला, हे महात्मा! संतान ना होना ही तो हम पति-पत्नी के जीवन की सबसे बड़ी निराशा है। अगर आपके पास संतान प्राप्ति का कोई उपाय हो तो हमें बताने की कृपा करें।

धनेश्वर का दुख देखकर महात्मा बोले, हे पुत्र, तुम्हारे इस कष्ट का एक आसान उपाय है। तुम्हें 16 दिनों तक श्रद्धापूर्वक काली माता की पूजा कर उन्हें प्रसन्न करना होगा तो उनकी कृपा से अवश्य तुम्हें संतान की प्राप्ति होगी। इतना सुनकर धनेश्वर बहुत खुश हुआ। उसने महात्मा का आभार प्रकट किया और घर आकर पत्नी को सारी बात बताई। इसके बाद धनेश्वर काली माता की उपासना के लिए जंगल चला गया। धनेश्वर ने पूरे 16 दिन तक मां काली की अराधना की और व्रत रखा। उसकी भक्ति देखकर मां काली उसके सपने में आईं और बोलीं, हे ब्रहाम्ण, तू निराश मत हो। मैं तुझे संतान की प्राप्ति का वरदान देती हूं। लेकिन याद रख कि 16 साल की छोटी उम्र में ही उसकी मृत्यु हो जाएगी। काली माता ने कहा कि लेकिन अगर तुम पति-पत्नी विधिपूर्वक 32 पूर्णिमा का व्रत करोगे, तो तुम्हारी संतान की आयु बढ़ जायेगी। सुबह जब तुम उठोगे तो तुम्हें यहां आम का एक पेड़ दिखाई देगा। उस पेड़ से एक फल तोड़ना और ले जाकर अपनी पत्नी को खिला देना। शिव जी की कृपा से तुम्हारी पत्नी गर्भवती हो जाएगी। इतना कहकर माता अंतर्ध्यान हो गईं।

सुबह जब धनेश्वर उठा, तो उसे आम का वृक्ष दिखा। पेड़ पर बहुत ही सुंदर फल लगे थे। काली मां के कहे अनुसार वह फल तोड़ने के लिए वृक्ष पर चढ़ने लगा। उसने कई बार प्रयास किया लेकिन फिर भी फल तोड़ने में असफल रहा। तभी उसने श्री गणेश का ध्यान किया। भगवान गणेश की कृपा से इस बार वो वृक्ष पर चढ़ गया। उसने फल तोड़ा और अपनी पत्नी को वो फल दिया। फल खाकर वो कुछ समय बाद गर्भवती हो गई। काली माता के कहे अनुसार दोनों हर पूर्णिमा पर दीपक जलाते रहे। कुछ दिन बाद भगवान शिव की कृपा हुई और ब्राह्मण की पत्नी ने एक सुंदर बेटे को जन्म दिया। बेटे का नाम खा देवीदास।

जब देवीदास 16 वर्ष का होने को हुआ तो माता-पिता को चिंता होने लगी कि इस वर्ष उसकी मृत्यु न हो जाए। उन्होंने देवीदास के मामा को बुलाया और कहा, तुम देवीदास को विद्या अध्ययन के लिए काशी ले जाओ। एक वर्ष बाद वापस आना। काशी प्रस्थान के बीच मामा भांजे एक गांव से गुजर रहे थे। वहां एक कन्या का विवाह हो रहा था। लेकिन विवाह होने से पूर्व ही उसका वर अंधा हो गया। इस बीच वर के पिता ने देवीदास को देखा और मामा से कहा, तुम अपना भांजा कुछ समय के लिए हमारे पास दे दो। विवाह संपन्न हो जाए तो उसके बाद ले जाना। ये सुनकर मामा ने कहा, अगर मेरा भांजा ये विवाह करेगा, तो कन्यादान में मिले धन आदि पर हमारा अधिकार होगा। वर के पिता ने मामा की बात स्वीकार कर ली और देवीदास के साथ कन्या का विवाह संपन्न करा दिया।

शादी के बाद जब देवीदास पत्नी के साथ भोजन करने बैठा। तो उसने उस थाल को हाथ नहीं लगाया। ये देखकर उसकी पत्नी बोली, स्वामी, आप भोजन क्यों नहीं कर रहे हैं? आपके चेहरे पर ये कैसी उदासी है? तब देवीदास ने सारी बात बताई। यह सुनकर उसकी पत्नी बोली, स्वामी मैंने अग्नि को साक्षी मानकर आपके साथ फेरे लिए हैं। अब मैं आपके अलावा किसी और को अपना पति स्वीकार नहीं करूंगी। पत्नी की बात सुनकर देवीदास ने कहा, ऐसा मत कहो। मैं अल्पायु हूं। कुछ ही दिन में 16 वर्ष की आयु होते ही मेरी मृत्यु हो जाएगी। इसपर उसकी पत्नी ने कहा कि स्वामी जो भी मेरे भाग्य में लिखा होगा, मुझे वो स्वीकार है। देवीदास ने उसे बहुत समझाने की कोशिश की।  जब वो नहीं मानी तो देवीदास ने उसे एक अंगूठी दी और कहा, मैं काशी जा रहा हूं। लेकिन तुम मेरा हाल जानने के लिए एक पुष्प वाटिका तैयार करो। उसमें भांति-भांति के पुष्प लगाओ, और उन्हें जल से सींचती रहो। अगर वाटिका हरी भरी रहे, पुष्प खिले रहें, तो समझना कि मैं जीवित हूं। और जब ये वाटिका सूख जाए, तो मान लेना कि मेरी मृत्यु हो चुकी है। इतना कहकर देवीदास काशी चला गया। अगले दिन सुबह जब कन्या ने दूसरे वर को देखा तो बोली, ये मेरा पति नहीं है। मेरा पति काशी पढ़ने गया है। अगर इसके साथ मेरा विवाह हुआ है तो बताए कि रात में मेरे और इसके बीच क्या बातें हुई थी। और इसने मुझे क्या दिया था? ये सुनकर वर बोला मुझे कुछ नहीं पता और पिता-पुत्र वहां से वापस चले गए।

एक दिन प्रातःकाल एक सर्प देवीदास को डसने के लिए आया। लेकिन उसके माता पिता द्वारा किए जाने वाले पूर्णिमा व्रत के प्रभाव के कारण वो उसे डस नहीं पाया। इसके बाद काल स्वयं वहां आए और उसके शरीर से प्राण निकलने लगे। देवीदास बेहोश होकर गिर पड़ा। तभी वहां माता पार्वती और शिव जी आए। देवीदास को बेहोश देखकर देवी पार्वती बोलीं, हे स्वामी, देवीदास की माता ने 32 पूर्णिमा का व्रत रखा था। उसके फलस्वरूप कृपया आप इसे जीवनदान दें। माता पार्वती की बात सुनकर भगवान शिव ने देवीदास को पुनः जीवित कर दिया। इधर देवीदास की पत्नी ने देखा कि पुष्प वाटिका में एक भी पुष्प नहीं रहा। वो जान गई की उसके पति की मृत्यु हो चुकी है और रोने लगी। तभी उसने देखा कि वाटिका फिर से हरी-भरी हो गई है। ये देखकर वो बहुत प्रसन्न हुई। उसे पता चल गया कि देवीदास को प्राणदान मिल चुका है। जैसे ही देवीदास 16 वर्ष का हुआ, मामा भांजा काशी से वापस चल पड़े। रास्ते में जब वो कन्या के घर गए, तो उसने देवीदास को पहचान लिया और प्रसन्न हुई। धनेश्वर और उसकी पत्नी भी पुत्र को जीवित पाकर खुश हो गए।

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