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Massacre At Mangarh Dham : राजस्थान और गुजरात की सीमाओं पर स्थित मानगढ़ धाम पर कर्नल शटन ने जलियावाला बाग हत्याकांड से भी बड़ा नरसंहार किया था

• LAST UPDATED : January 22, 2022

Highlights :

  • अनछुएँ प्रसंग
  • राजस्थान का जलियावाला बाग हत्याकाण्ड
  • राजस्थान और गुजरात की सीमाओं पर स्थित मानगढ़ धाम पर कर्नल शटन ने जलियावाला बाग हत्याकांड से भी बड़ा नरसंहार किया था…..
-गोपेंद्र नाथ भट्ट- 
Massacre At Mangarh Dham : नई दिल्ली। आज जब देश अपनी आज़ादी के 75वें वर्ष की जन्म गाँठ को अमृत-महोत्सव के रुप में मना रहा हैं और इस वर्ष की गणतंत्र दिवस परेड के लिए पहली बार देश के कलाकारों द्वारा नई दिल्ली के ऐतिहासिक राजपथ के दोनों ओर बनाई गई विशाल और शानदार स्क्रॉल ‘कला कुंभ’ में देश की विस्मयकारी शौर्य गाथा एवं सांस्कृतिक वैभव के दृश्य प्रस्तुत करने की अनूठी पहल भी की गई हैं,वहीं आज गुजरात और राजस्थान की सीमाओं पर स्थित मानगढ़ धाम पर करीब सौ साल पहले जलियावाला बाग हत्याकांड से भी बड़े नरसंहार की यादें ताज़ा हो गई हैं। भारत के स्वतंत्रता संग्राम में पंजाब के अमृतसर के जलियावाला बाग हत्याकाण्ड की खूब चर्चा होती है,पर मानगढ़ नरसंहार को संभवतः इसलिए भुला दिया गया, क्योंकि इसमें बलिदान होने वाले लोग पिछड़े और निर्धन वनवासी थे।
दक्षिणी राजस्थान के वागड़ अंचल में बाँसवाड़ा जिले की गुजरात से सटी  मानगढ़ पहाड़ी पर आदिवासियों के महान संत गोविन्द गुरु के नेतृत्व में हुए एक सामाजिक और सांस्कृतिक समागम पर घोड़ों और गधों खच्चरों के माध्यम से गोला बारूद और बन्दूकें ढोह कर 17 नवंबर, 1913, मार्गशीर्ष पूर्णिमा के दिन अंग्रेजों ने गोलियाँ बरसाकर 1500 बेक़सूर भील आदिवासियों की हत्या कर दी थी। बहुत कम लोगों को मालुम होगा कि 1500 भीलों का यह बलिदान आजादी के आंदोलन में अब तक प्रसिद्ध रहें जलियांवाला बाग के बलिदान से भी बड़ा था और उससे भी पहले हो चुका था।

इतिहास में हमेशा गुमनामी में डूबे इस मंजर को स्थानीय जन प्रतिनिधियों के साथ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने गुजरात का मुख्यमंत्री रहते और राजस्थान के मुख्यमंत्रियों अशोक गहलोत और वसुन्धरा राजे आदि ने अपने-अपने क्षेत्र में स्मारक बनवा कर उजागर किया लेकिन आज भी यह बलिदान स्थल अपना असली हक पाने का इन्तज़ार कर रहा है।

मानगढ़ धाम (Massacre At Mangarh Dham)

मानगढ़ धाम राजस्थान और गुजरात की सीमा पर बांसवाड़ा जिले में आनन्दपुरी पंचायत समिति मुख्यालय  से कुछ दूरी पर बना हुआ है। यह ऐसा स्मारक है जो देशभक्ति और गुरुभक्ति को एक साथ दर्शाता है। यहाँ करीब सौ साल पहले 17 नवंबर, 1913 को गोविन्द गुरु का जन्मदिन मनाने के लिए एकत्र हुए हजारों गुरुभक्तों को ब्रिटिश सेना ने मौत के घाट उतार दिया था। मानगढ़ धाम र दक्षिणी राजस्थान के उदयपुर संभाग में बाँसवाड़ा जिले में एक दुर्गम पहाड़ी पर स्थित है । यहां गुजरात और मध्य प्रदेश की सीमाएं भी लगती हैं। यह सारा क्षेत्र वनवासी बहुल है।

मुख्यतः यहां महाराणा प्रताप की सेना में शामिल भील जनजाति के लोग रहते हैं। आजादी से पहले सामन्त, रजवाड़े तथा अंग्रेज भीलों की अशिक्षा, सरलता तथा अथाह गरीबी का लाभ उठाकर इनका शोषण करते थे। इनमें फैली कुरीतियों तथा अंध परम्पराओं को मिटाने के लिए निकटवर्ती डूंगरपुर जिले के निवासी और महान सामाजिक और धार्मिक सुधारक गोविन्दगिरि (गोविन्द गुरु ) के नेतृत्व में एक बड़ा सामाजिक एवं आध्यात्मिक आंदोलन हुआ जिसे ‘भगत आन्दोलन’ के रूप में जाना जाता हैं।

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*कौन थे गोविन्दगिरि ?*

Massacre At Mangarh Dham

Massacre At Mangarh Dham

गोविन्द गुरु (1858-1931) का जन्म 20 दिसम्बर, 1858 को डूंगरपुर जिले के बांसिया (बेड़िया) गांव में गोवारिया जाति के एक बंजारा परिवार में हुआ था। बचपन से उनकी रुचि शिक्षा के साथ अध्यात्म में भी थी। उन्होने न तो किसी स्कूल-कॉलेज में शिक्षा ली और न ही किसी सैन्य संस्थान में प्रशिक्षण पाया। महर्षि दयानन्द सरस्वती की प्रेरणा से उन्होंने अपना जीवन देश, धर्म और समाज की सेवा में समर्पित कर दिया।
उन्होंने अपनी गतिविधियों का केन्द्र वागड़ अंचल को बनाया और राजस्थान एवं गुजरात के आदिवासी बहुल सीमावर्ती क्षेत्रों में ‘भगत आन्दोलन’ चलाया। गोविंद गुरु ने अपना भगत आंदोलन 1890 के दशक में शुरू किया था। आंदोलन में अग्नि-देवता को प्रतीक माना गया था। अनुयायियों को पवित्र अग्नि के समक्ष खड़े होकर पूजा के साथ-साथ हवन (अर्थात् धूनी) करना होता था।
गोविन्द गुरु ने 1883 में ‘सम्प सभा’ की स्थापना की। (Massacre At Mangarh Dham)
इसके द्वारा उन्होंने आदिवासियों को शराब, मांस, चोरी, व्यभिचार आदि से दूर रहने,परिश्रम कर सादा जीवन जीने,प्रतिदिन स्नान, यज्ञ एवं कीर्तन करने,विद्यालय स्थापित कर बच्चों को पढ़ाने, अपने झगड़े पंचायत में सुलझाने, अन्याय न सहने, अंग्रेजों के पिट्ठू जागीरदारों को लगान न देने, बेगार नही करने तथा विदेशी वस्तुओं का बहिष्कार करने एवं स्वदेशी का प्रयोग करने आदि की शिक्षा और सन्देश देकर गांव-गांव में प्रचार अभियान चलाया।कुछ ही समय में लाखों लोग उनके भक्त बन गये। प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष पूर्णिमा को सम्प सभा का वार्षिक मेला होता था, जिसमें लोग हवन करते हुए घी एवं नारियल की आहुति देते थे। लोग यहाँ हाथ में घी के बर्तन तथा कन्धे पर अपने परम्परागत अस्त्र-शस्त्र लेकर आते थे। मेले में सामाजिक तथा राजनीतिक समस्याओं की चर्चा भी होती थी।
इससे वागड़ का यह वनवासी क्षेत्र जन जागृति से धीरे-धीरे ब्रिटिश सरकार तथा स्थानीय सामन्तों के विरोध की आग में सुलगने लगा। अंग्रेजी हुकूमत के दिनों में जब भारत की आजादी के लिए हर व्यक्ति अपने-अपने ढंग से योगदान दे रहा था तब गोविंद गुरु ने अशिक्षा और अभावों के बीच अज्ञान के अंधकार में जैसे-तैसे अपना जीवनयापन करने वाले आदिवासी अंचल के निवासियों में  धार्मिक चेतना की चिंगारी से आजादी की अलख जगाने का काम किया।

*राजस्थान का जलियावाला बाग हत्याकाण्ड* 

Massacre At Mangarh Dham

Massacre At Mangarh Dham

इस दौरान 17 नवम्बर, 1913 (मार्गशीर्ष पूर्णिमा) को मानगढ़ की पहाड़ी पर वार्षिक मेला होने वाला था। इससे पूर्व गोविन्द गुरु ने शासन को अपने एक पत्र द्वारा अकाल से पीड़ित वनवासियों से खेती पर लिया जा रहा कर घटाने, धार्मिक परम्पराओं का पालन करने देने तथा बेगार के नाम पर उन्हें परेशान नहीं करने का आग्रह किया परन्तु अंग्रेज़ी हुकूमत ने मानगढ़ पहाड़ी को घेरकर मशीनगन और तोपें लगा दीं। इसके बाद उन्होंने गोविन्द गुरु को तुरन्त मानगढ़ पहाड़ी छोड़ने का आदेश दिया। उस समय तक वहां लाखों भगत आ चुके थे।
अंग्रेजों की पुलिस ने कर्नल शटन के नेतृत्व में गोलीवर्षा प्रारम्भ कर दी, जिससे 1,500 लोग मारे गये।पुलिस ने गोविन्द गुरु को गिरफ्तार कर पहले फांसी और फिर आजीवन कारावास की सजा दे दी। 1923 में जेल से मुक्त होकर गोविन्द गुरु भील सेवा सदन, झालोद के माध्यम से लोक सेवा के विभिन्न कार्य करते रहे। 30 अक्तूबर, 1931 को ग्राम कम्बोई (गुजरात) में उनका देहान्त हो गया। आदिवासी समुदाय और अन्य लाखों लोग प्रतिवर्ष मार्गशीर्ष पूर्णिमा को मानगढ पर बनी अपने इस महान गुरु की समाधि पर आकर उन्हें श्रद्धा-सुमन अर्पित करते हैं।

*भजनों से आजादी की अलख जगाते थे गोविन्द गुरु*

Massacre At Mangarh Dham

Massacre At Mangarh Dham

गोविन्द गुरु ढोल-मंजीरों की ताल और वागड़ी भाषा के अपने भजनों की स्वर लहरियों से आम जनमानस को आजादी के लिए उद्वेलित करते थे। गोविन्द गुरू ने अपने सन्देश को लोगों तक पहुंचाने के लिए साहित्य का सृजन भी किया। वे लोगों को कई गीत सुनाते थे।
उनके मशहूर भजनों में सबसे प्रसिद्ध यह भजन आज भी लोगों के मन मस्तिक में आजादी की लड़ाई की भावना भर देता है-
*तालोद मारी थाली है, गोदरा में मारी कोड़ी है (बजाने की)
अंग्रेजिया नई मानू नई मानूं….
अमदाबाद मारो जाजेम है ,कांकरिये मारो तंबू हे।
अंग्रेजिया नई मानू नई मानूं…*
*धोलागढ़ मारो ढोल है, चितौड़ मारी सोरी (अधिकार क्षेत्र) है।आबू में मारो तोरण है, वेणेश्वर मारो मेरो है। अंग्रेजिया नई मानू. नई मानूं….*
*दिल्ली में मारो कलम है, वेणेश्वर में मारो चोपड़ो (मावजी महाराज)है,
अंग्रेजिया नई मानू. नई मानूं……*
*हरि ना शरणा में गुरु गोविंद बोल्या
जांबू (देश) में जामलो (जनसमूह) जागे है, अंग्रेजिया नई मानू. नई मानूं।…..*
गोविंद गुरू अंग्रेजों की नीतियों को खूब समझते थे और उन्हें वे ‘भूरिया’ (गोरा रंग )कहते थे । वे इस बारे में लोगों यह गीत गाकर बताते थे–
*दिल्ली रे दक्कण नू भूरिया, आवे है महराज।बाड़े घुडिले भूरिया आवे है महराज।।*
*साईं रे भूरिया आवे है महराज।
डांटा रे टोपीनु भूरिया आवे हैं महराज।।*
*मगरे झंडो नेके आवे है महराज।
नवो-नवो कानून काढे है महराज।।*
*दुनियाँ के लेके लिए आवे है महराज।
जमीं नु लेके लिए है महराज।।*
*दुनियाँ नु राजते करे है महराज।
दिल्ली ने वारु बास्सा वाजे है महराजI*
*भूरिया जातू रे थारे देश।
भूरिया ते मारा देश नू राज है महराज।।*
Massacre At Mangarh Dham

Massacre At Mangarh Dham

उनके लोकप्रिय इस भजन में गोविन्द गुरू अंग्रेजों से देश की जमीन का हिसाब मांग रहे हैं और बता रहे हैं कि यह सारा देश हमारा है। हम लड़कर अपनी माटी को अंग्रेजों से मुक्त करा लेंगे।
इस भजन को “राजा है महराज” जैसे टेक के साथ समूह गीत की तरह गाया जाता था। कहने को तो यह एक भजन है परन्तु यह भजन कम, राजनीतिक व्यंग ज्यादा था, जिसे स्कूल के मास्टर की तरह गोविंद गुरू सभी को रटाते थे। खास बात यह थी कि वे आदिवासी भाई बहनों में व्यापक एकता चाहते थे और इस कारण ही वे अपने भजनों में आँचलिक वागड़ी (राजस्थानी भाषा) का उपयोग करते थे।
राजस्थान और गुजरात के सीमावर्ती आदिवासी अंचल में उनके मशहूर भजनों की गूँज आज भी सुनाई देतीं हैं।
आज क्रांतिकारी संत गोविंद गुरु के परिवार की छठी और सातवीं पीढ़ी उनकी विरासत को संभाले हुए है और  मगरियों पर रहकर गुरु के उपदेशों को जीवन में उतारने का संकल्प प्रचारित कर रहीं हैं।
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