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Tradition of Playing Holi with Stones राजस्थान के डूंगरपुर जिले के भीलूड़ा गाँव में पत्थरों से होली खेलने की अनूठी परम्परा

Tradition of Playing Holi with Stones

गोपेंद्र नाथ भट्ट, डूंगरपुर

Tradition of Playing Holi with Stones : अबीर-गुलाल के रंगों, फूलों और पानी से खेलने वाली होली के साथ ही ब्रज में बरसाना की लट्ठमार होली के बारे सब भली-भाँति परिचित है, लेकिन पत्थरों से खेली जानी वाली होली के बारे में बहुत कम लोगों ने सुना होगा। जी हाँ राजस्थान के दक्षिणांचल में उदयपुर संभाग के जनजाति बहुल वागड़ क्षेत्र के डूंगरपुर जिले के सागवाडा कस्बे के निकट भीलूड़ा गाँव में पत्थरों से होली खेलने की अनूठी परम्परा सदियों से चली आ रही हैं।

होली पर कई लोगों को लहू लुहान कर गम्भीर रूप से घायल कर देने वाला यह वी भत्स खेल रोमांचक और सनसनी फैलाने वाला है। खून की इस होली को स्थानीय लोग राड़ खेलना कहते है। राजस्थान गुजरात और मध्य प्रदेश के संगम वाले इस आदिवासी अंचल में शौर्य प्रदर्शन करने की यह अनूठी लोक परंपरा वर्षों से बदस्तूर चली आ रही हैं जिसमें राड़ के नाम पर लोग एक दूसरे पर पत्थर बरसा कर लहूलुहान और घायल कर देते है। वर्तमान वैश्विक काल में संचार युग के बढ़ते प्रसार में मनोरंजन के नए अन्दाज और मायने बदल गये है

लेकिन होली के लोकारंजन पर्व पर भीलूड़ा गाँव में सदियों से खेली जाने वाली पत्थरों की होली राड़ के स्वरूप में राज्य सरकार और जिला प्रशासन की लाख समझाईश के बावजूद कोई बदलाव नहीं आया है और इस गांव की पहचान यहाँ के ऐतिहासिक राम-कृष्ण के मिले जुले स्वरूप वाले रघुनाथ मंदिर के साथ पत्थरों से खेलने वाली अनूठी होली के लिए दूर-दूर तक विख्यात हो गई है। (Tradition of Playing Holi with Stones)

धुलेण्डी की शाम खेली जाती है राड़

रंगों के त्यौहार होली के दूसरे दिन धुलेण्डी की शाम को भीलूड़ा गाँव के रघुनाथजी मन्दिर के पास स्थित मैदान में रोमांचित कर देने वाला और दिल दिमाग को हिला देने वाला सनसेनीखेज नजारा देखने को मिलता है। पत्थरों से राड़ खेलने वाले सैकड़ों लोग अपनी परंपरागत पौशाकों में सज-धज कर और सिर पर साफा पहने और पैरों में घुघरू, हाथों में ढ़ाल एवं गोफण लिये एक दूसरे से संघर्ष के लिए मैदान में आकर दो ग्रूप में बंटजाते है। मद मस्त यें टोलियाँ वागड़ी गीतों और “होरिया” की चित्कारियां करते हुए सामने वाले दल के लोगों को उकसाते हुए हाथों से तथा गोफण से एक दूसरे पर पत्थर बरसाते हैं।

मैदान में जब गोफणें तेजी से घुमने लगती है तो युद्ध भूमि जैसा नजारा देखने मिलता है और पाषाण युग सामंजर नजर आता है । देखते ही देखते दर्जनों लोग लहूलुहान होकर मैदान से बाहर आने लगते हैं और उन्हें उनके सहयोगी मैदान के पास ही स्थित अस्पताल में मरहम पट्टी एवं उपचार के लिए ले जाते हैं। जब राड़ का खेल अपने चरमोत्कर्ष पर होता है तो कई बार इस अद्भुत नजारा को देखने मैदान के चारों ओर तथा सुरक्षित स्थानों पर बैठे दर्शक भी निशाना बन जाते है। (Tradition of Playing Holi with Stones)

इस आदिवासी क्षेत्र में सदियों से चली आ रहीं इस शौर्ष प्रदर्शन की परंपरा में बदलते युग के साथ कई विकार भी आ गये है लेकिन राड़ के खेल ने आज भी अपना वजुद बरकरार रखा है। प्रचलित लोक मान्यताओं के अनुसार राड़ खेलना यहाँ शौर्य प्रदर्शन के साथ ही हिम्मत एवं बहादुरी का पैमाना और राड़ के दौरान लगनेवाली पत्थरों की चोट से बहते खून को अगले वर्ष का शुभ संकेत माना जाता है। इस अनूठे और अद्भुत प्रदर्शनको देखने दूर-दराज से हजारों लोग आते है और कई विदेशी पर्यटक भी आदिम संस्कृति की झलक पाने औरइसका दीदार करने भीलूड़ा पहुँचते हैं।

क्यों खेली जाती है राड़ ?

यहाँ प्रचलित जन श्रुति और लोक मान्यता के अनुसार मेवाड़ के राणा सांगा के साथ मुगल बादशाह बाबर केसाथ खंडवा के युद्ध के मैदान में डूंगरपुर के महारावल उदयसिंह द्वितीय के शहीद होने के बाद उनकी रियासतदो भागों डूंगरपुर और बांसवाड़ा में बंट गई और उनके बड़े पुत्र पृथ्वी सिंह डूंगरपुर और छोटे पुत्र जगमाल सिंह बाँसवाड़ा नरेश बनें। बताते है कि एक बार धुलेंडी के दिन राजा जगमाल सिंह का काफिला भीलूड़ा गांव से निकल रहा था।

उस समय यहां के एक पाटीदार जिसके पालतू कुत्ते का नाम भी जगमाल था को राजा ने जब उसे जगमाल नाम से पुकारते देखा और सुना तो बांसवाड़ा नरेश क्रोधित हो गए और उन्होंने अपने सैनिकों कोपाटीदार को मार देने का आदेश दिया।सैनिकों के डर से जब पाटीदार भाग रहा था तो उसकी इस मैदान में उसकी मौत हो गई और उसी मैदान पर पाटीदार की पत्नी अपने पति की चिता पर जल कर सती हुई।

उसने सती होने से पहले राजा और उसके सैनिकों को श्राप दिया कि आज के दिन हर वर्ष इस मैदान पर खून गिराना होगा और यदि ऐसा नहीं होने पर गांव में बड़ा अनिष्ट होगा। सती के अभिशाप और किसी अनिष्ट से बचने के लिए मैदान में खून गिराने के लिए पत्थरों की राड़ खेलने की यह परंपरा शुरू हुई थी जो सैकड़ो वर्षों के बाद आज भी बदस्तूर जारी है। (Tradition of Playing Holi with Stones)

यह परम्परा थी शौर्य एवं शक्ति का प्रदर्शन

किंवदंतियों के अनुसार सती के वचनों का निर्वहन करने बरसों पहले धुलेंडी के दिन पत्थरों की होली और राड़ खेलने की यह परम्परा शौर्य एवं शक्ति का प्रदर्शन करने के एक आदर्श स्वरूप में लोकारंजन के लिए खेली जाती थी। राड़ खलने वाले दल सामने वाले दल को सावचेत कर हुए अपने आपको बचाने की हिदायत देत हुए हाथ से ही पत्थर फेकते की रस्म अदायगी करते थे किसी को चौट पहुँचाना अथवा घायल करना उद्देश्य नहीं होता था।

लेकिन कालान्तर में गोफन से पत्थर फेकनें की विकृति और सामने वाले को चोट पहुँचा कर लहुलुहान करना मकसद बन गया।  प्रारम्भ में सद्भावना के साथ राड़ खेलना हिम्मत एवं बहादुरी तथा संयम का पैमाना माना जाता था लेकिन आज राड़ का खेल प्रतिशोध एवं दिखावे का मैदान बन गया है। अब यहां राड़ खेलने वालों की संख्या सैकड़ों में हो गयी है तो दर्शकों की संख्या हजारों में होती जा रहीं है।

राज्य सरकार जिला प्रशासन और आम जनों से प्रबुद्धजन तक राड़ के स्वरूप में बदलाव और खून खराबे की इस परंपरा को बंद करना चाहता है लेकिन प्रशासन, पुलिस, न्यायालय एवं जनप्रतिनिधियों के हस्तक्षेप प्रयासों और हर वर्ष की जाने वाली अपील के बाद भी यह परम्परा बंद नही हों पा रही है । परंपरा के नाम पर भीलूड़ा गाँव में हर वर्ष होली पर पत्थर बरसा खूनी होली खेलने का यह क्रम अनवरत जारी है।

होली पर आदिवासियों की अल्हड़ मस्ती

दूसरी ओर वागड़ अंचल में होली के अवसर पर पन्द्रह दिनों तक आदिवासियों की अल्हड़ मस्ती का अनोखा अन्दाज और आकर्षक गेर नृत्य की धूम देखने मिलती है और आम रास्तों से गुजरना भी दूभर हों जाता हैं। रोजगार के लिए निकटवर्ती गुजरात मध्य प्रदेश और महाराष्ट्र आदि प्रदेशों में काम करने वाले हजारों लोग पन्द्रह दिनों तक अपने-अपने काम से अवकाश लेकर और अपने गाँव आकर होली की मद और मस्ती के आलम में डूब जाते है।

होली पर गीत संगीत नृत्य और फाग में सराबोर वागड़ में लोकानुरंजन की कई और अनूठी परंपराएं सभी को आनंद के सागर में हिलोरें लेती दिखाई देती हैं। (Tradition of Playing Holi with Stones)

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Amit Gupta

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